रघु हर सुबह की तरह जल्दी उठकर रसोई में पहुंचा था, लेकिन आज कुछ अलग था। उसकी मालकिन, सौम्या जी, हल्के गुलाबी रंग की साड़ी में बालों को खोले रोटियां बेल रही थीं। साड़ी का पल्लू बार-बार कंधे से सरक रहा था, और हर बार वो उसे बेपरवाही से ठीक कर रही थीं। रघु की नज़रें खुद-ब-खुद खिंचती चली गईं। वो कोई आम नौकर नहीं था – तीन साल से इस हवेली में था और हर दिन सौम्या को देखकर उसकी चाहत और गहराती जा रही थी।
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वो धीरे से उनके पास गया और मुस्कुराते हुए बोला, "मालकिन, रोटी तो आप बेलती हैं, मगर आज तो आग कुछ और ही जल रही है इस चूल्हे में।” सौम्या ने पलटकर उसकी ओर देखा, उसकी आंखों में पहली बार कुछ चमक सी थी – न नाराज़गी, न हैरानी, बस एक मौन स्वीकृति। रघु ने आँच धीमी की और धीरे से कहा, “इतनी गर्मी तो तवे में भी नहीं होती, जितनी आपके पास आने पर लगती है।
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Part 3
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सौम्या का हाथ एक पल को ठिठक गया। उसने सिर झुकाया, लेकिन होठों पर मुस्कान छुप नहीं सकी। “ज्यादा बोलना सीख लिया है अब तुमने,” वो बोली। रघु ने उसकी साड़ी का पल्लू जो फिर से कंधे से सरक गया था, धीरे से ठीक करते हुए कहा, “सीखा तो आपसे है… हर चीज़ को कैसे छूना है, कैसे संभालना है।” उसके इस स्पर्श में हल्की तपिश थी, और सौम्या की सांसें भारी होने लगीं।
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रसोई की भट्टी के साथ-साथ दोनों के भीतर भी कुछ जलने लगा था। सौम्या ने धीरे से आटा गूंथते हुए पूछा, “अगर रोटियाँ जल गईं तो?” रघु ने उसकी उंगलियों को छूते हुए कहा, “तो फिर से गूंथ लेंगे… पर ये मौका अगर हाथ से गया, तो दोबारा नहीं मिलेगा।” सौम्या ने उसकी ओर देखा – उसकी आंखों में अब कोई सवाल नहीं था। बस ताज्जुब, चाहत और एक दबी हुई हिम्मत थी।
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अचानक एक खामोशी छा गई, जैसे दोनों के बीच सब कुछ कह दिया गया हो। सौम्या ने आटे से सने हाथों से रघु का चेहरा छुआ और धीमे से कहा, “तुम्हारी ये बातों की आँच… बहुत तेज़ है रघु।” रघु मुस्कुराया और उसके हाथों को अपने होंठों से छुआ। रसोई की दीवारें अब सिर्फ रोटियों की खुशबू से नहीं, बल्कि अधूरी ख्वाहिशों और दबी हुई आग से भर चुकी थीं। पहली बार दोनों ने उस लकीर को पार किया – जो नौकर और मालकिन के बीच कभी नहीं लांघी जाती।